स्पेस क्राफ्ट को स्पेस में ले जाने के लिए राकेट की ज़रूरत होती है | जब कोई राकेट लांच होता है , तो उसके लांच से कुछ वक्त पहले उसके चारो तरफ धुंए की बादल जैसे नज़र आते है | क्या आपको पता की आखिर यह धुँआ कहाँ से आता है | अगर आप सोच रहे हो की यह धुँआ राकेट के इंजन से निकल रहा है ..तो ऐसा नहीं है ..| क्यूंकि अगर यह धुँआ राकेट के इंजन से निकलने वाला धुँआ होता , तो इसकी वजह से काफी प्रदूषण फैलता , और कई सामजिक संगठन इसका विरोध करने खड़े हो जाते | लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता और कोई भी कभी NGO या संगठन राकेट लांच का विरोध नहीं करते | और उसका कारण है की यह धुँआ सामान्य धुए से अलग होता , और इसकी वजह से वातावरण में कोई भी प्रदूषण नहीं फैलता |तो फिर यह धुँआ क्या होता है |

असल में यह धुँआ ., धुँआ न होकर पानी या जल वाष्प होता है | आश्चर्य हुआ न , लेकिन यह सच है |
राकेट को स्पेस में जाने के लिए न्यूटन के तीसरे नियम को फोलो करना पड़ता है | जिसेक अनुसार हर क्रिया के विपरीत और बराबर प्रतिक्रिया होती है | यानि की राकेट लांच के वक्त कोई ऐसा केमिकल रिएक्शन ( Chemical Reaction ) किया जाए जिससे काफी तेज़ मात्रा में गैस और दुसरे कण बाहर निकल कर आए तो राकेट उसकी उलटी दिशा में तेज़ी से आगे बढेगा .| और राकेट को तेज़ गति से प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण सीमा से बाहत ले जाने के लिए जिस रासायनिक रिया का उपयोग किया जाता है वो है combustion reaction | और इस क्रिया के लिए ज़रूरत होती है फ्यूल और oxidizer की | राकेट का जो मुख्य इंजन होता है उसे लिक्विड इंजन (LIquid Engine ) कहा जाता है | क्यूंकि इसमें फ्यूल के रूप में लिक्विड हाइड्रोजन का उपयोग होता है | औरत लिक्विड ऑक्सीजन का उपयोग oxidizer के रूप में किया जाता है |oxidizer की ज़रूरत फ्यूल को जलाने के लिए पड़ती है |हाइड्रोजन एक कम घनत्व वाली गैस हा , मतलब इसकी थोड़ी सी मात्रा को रखने के लिए भी हमें बहुत सारी जगह की ज़रूरत पड़ती है |लेकिन स्पेस क्राफ्ट में तो हम बहुत बड़ा फ्यूल कंटेनर रख नहीं सकते | क्यूंकि ऐसा करने से उसका आकार और ज्यादा बढ़ जाता , और फिर उसे अन्तरिक्ष में ले जाने के लिए हमें ज्यादा फ्यूल की ज़रूरत पड़ती | और इस समस्या के समाधान के लिए हाइड्रोजन को गैस की जगह लिक्विड में बदल कर उपयोग किया जाता है |तरल रूप में हाइड्रोजन आसानी से राकेट के टैंक में समा जाती है | हाइड्रोजन को गैस से तरल में बदलने के लिए उसे -253 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रखना पड़ता है | इसी तरह ऑक्सीजन को गैस से तरल में बदलने के लिए उसे -183 डिग्री के तापमान तक ठंडा किया जाता है | लिक्विड हाइड्रोजन और लिक्विड ऑक्सीजन केआपस में मिलने से विस्फोट हो सकता है |इसलिए लांच वाली जगह इन्हें दो अलग लग गह पर रखा जाता है |और राकेट लांच होने के कुछ देर पहले दोनों को राकेट के टेंक में भरा जाता है | इस टेंक के दो भाग होते है |पहले भाग में तरल हाइड्रोजन को भरा जाता है और दुसरे भाग में तरल ऑक्सीजन को | जब राकेट लांच होने वाला होता है तो उसकी कुछ देर पहले तरल ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को Combustion चैम्बर में पम्प किया जाता है | और जब प्रोपेलेंट को जलाया जाता है तो हाइड्रोजन और ऑक्सीजन आपस में मिलकर पानी और गैस बनांते है |
2H2 + o2 = 2H2o + ऊर्जा
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की इस रासायनिक प्रक्रिया के कारण काफी मात्रा में जल वाष्प और ऊर्जा का निर्माण होता है | और इस क्रिया की वजह से ऊष्मा ( Heat ) भे उत्पन्न होती है | जिसकी वजह से यह जल वाष्प तेजी से फैलने लगता है | और 10 000 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से राकेट के नोज़ल से बाहर निकलने लगता है | इंजन से इतनी तेज़ रफ़्तार से निकलने वाले जल वाष्प की वजह से थ्रस्ट का निर्माण होता है , जो की राकेट को अंतरिश में ले जाने में सक्षम बनाता है |
अब आप यह तो समझ ही गए होंगे की राकेट से निकलने वाले धुए में कुछ भाग जल वाष्प का होता है , जिसे हम राकेट में ईंधन के रूप में उपयोग करते है | और जैसा की हमने बताया था की राकेट में ईंधन के रूप में तरल ऑक्सीजन और तरल हाइड्रोजन का उपयोग किया जाता है | और इन्हें तरल रूप में रखने के लिए काफी कम तापमान पर रखा जाता है | लेकिन राकेट में पहुँचने के बाद तापमान बढ़ने के कारण यह उबलने लगते है | जिसकी वजह से वहाँ दाब (Pressure ) बढ़ने लगता है | और इस दाब को कम करने के लिए इन गेस को बाहर छोड़ दिया जाता है | हालांकि इस वक्त यह गैस के रूप में होते है , लेकिन अभी भी यह काफी ठन्डे होते है | इस कारण इनके आसपास दाब युक्त नमी का निर्माण हो जाता है | राकेट के लांच के दौरान जो बाकी की धुँआ होता हिया वो sound supression system की वजह से होता है |
अब यहाँ आपको यह भी जानना ज़रूरी है की sound supression system क्या है , और यह कैसे काम करता है | किसी भी स्पेस क्राफ्ट को अंतरिश में पहुँचाने के लिए एक शक्तिशाली राकेट की ज़रूरत पड़ती है | लांच के समय इंजन से काफी तेज़ गति से गेसे बाहर निकलती है | जब इनकी गति आवाज़ की गति से भी ज्यादा तेज़ होती है तो यह ambient air से टकराते है , तो शोकवेव (Shock waves ) का निर्माण होता है | जिनका शोर का लेवल लगभग 200 डेसिबल के आसपास होता है | जो की बहुत ज्यादा होता है | औ रगर आप इतनी तेज़ आवाज़ के आसपास भी मौजूद हो तो आपकी जान भी जा सकती है | यह शॉक वेव बहुत ही शक्ति शाली हलचल का निर्माण करते है जिसकी वजह से राकेट को नुक्सान भी पहुँच सकता है |
इससे बचने के लिए sound supression system का उपयोग किया जाता है | जिसकी वजह से शोर को काफी कम किया जा सकता है | इसम भी बहुत अधिक मात्रा में पानी का इस्तेमाल किया जाता है |
अब इस तकनीक में पानी का उपयोग क्यों किया जाता है , इसे समझने के लिए हमें पहले स्टेल सबमरीन तकनीक को समझना होगा |

सोनार (Sonar ) तकनीक के बारे में आपने ज़रूर सुना होगा , जिस्म आवाज़ की मदद से चीजों को ढूँढा जाता है | किसी भी चीज़ को ढूँढने के लिए इसका उपयोग कैसे किया जाता है , तो देखे , सबसे पहले यह कुछ ख़ास तरह की sound waves को छोड़ता है , जो पानी के अन्दर जाते है | और अगर पानी के अंडा र्कोई चीज़ जैसे कोई शिप वगेरह मौजूद होते है तो यह waves उससे टकराकर वापस आते है , और वापस आने वाले इन waves की ठीक से जांच करके यह पता लगाया जा सकता है की पानी में मौजूद वास्तु किस आकार की है , और कितनी दूरी पर मौजूद है | लेकिन अगर पानी में कोई ऐसा ऑब्जेक्ट मौजूद हो जो की इन sound waves को सोख ले तो यह तरंगे वापस नहीं लौट पाएंगी | ऐसे में इस वस्तु को पहचाना नहीं जा सकेगा | इसी तकनीक का उपयोग स्टेल सबमरीन में किया जाता है | दरअसल पानी के बुलबुलों में एक ख़ास बात होती है जब sound waves इन बुलबुलों से टकराते है , तो यह बुलबुले दब जाते है जिसकी ववजह से श्रव्य ऊर्जा (sound energy ) ऊष्मा (Heat energy ) में बादल जाती है | और यह sound waves को सोख लेते है | जिसकी वजह से sound waves लौट कर नहीं जाती | और इसी वजह से इसे सोनार तकनीक से नहीं ढूँढा जा सकता | इसीलिए सब मरीन को सोनार से बचाने के लिए उनके चारो तरफ काफी मात्रा में बुलबुलों को फैलाया जाता है | अब इसी तकनीक का उपयोग राकेट लांच के वक्त उत्पन्न होने वाले शोर को कम करने के लिए भी किया जाता है | राकेट लौचं के वक्त काफी मात्रा में पानी को लॉन्चिंग पेड़ पर छोड़ा जाता है | राकेट लांच के समय पैदा होने वाले sound waves जब पानी के अणुओ से टकराते है , तो इनमे कम्पन होने लगता है | जिसकी वजह से sound energy , ऊष्मा में बदलने लगती है | यानि की यह पानी उस शोर को काफी हद तक कम कर देता है | और यह एक सुरक्षित स्तर तक आ जाता है | और राकेट लांच में कोई परेशानी नहीं होती | हां बस पूरी प्रक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा की वजह से उस जगह काफी गर्मी हो जाती है | जिसकी वजह से पानी भाप बनकर उड़ने लगता है |
राकेट के लांच होने में कितने पानी की ज़रूरत पड़ती है ?
राकेट लांच से पहले एक टेंक से 3 लाख गेलन पानी छोड़ा जाता है , इसके अलावा राकेट के इंजन के शुरू होते ही 6 से 12 नोज़ल से पानी की बौछार की जाती है | जिन्हें रेन बर्ड्स कहा जाता है | लिफ्ट ऑफ़ के 9 सेकंड के बाद 9 लाख गेलन पानी sound लेवल को कम करने के लिए छोड़ा जाता है | इस पानी का उप्योग वहां आग से बचने के लिए भी किया जाता है |
तो अब आप समझ गए होगे की राकेट लांच के वक्त दिखाई देने वाला धुँआ असल में धुँआ नहीं बल्कि पानी होता है |